तीसरी फिल्मों का डर? इस बार नहीं. Jolly LLB फ्रैंचाइज़ की नई किस्त ने पहले दिन से ही थिएटरों में तालियाँ और सीटियाँ बटोरी हैं. सोशल मीडिया पर रिव्यू की बाढ़ है—लोग कह रहे हैं, तीसरी कड़ी का ‘श्राप’ टूट गया. और वजह साफ है: हंसी-ठट्ठा बना रहा, सिस्टम पर चुभती बातें भी होती रहीं, और कोर्टरूम ड्रामा ने पकड़ छोड़ी नहीं. यही वजह है कि Jolly LLB 3 review फिलहाल हर तरफ पॉजिटिव दिख रहा है.
कहानी, टोन और थीम: ठहाकों के बीच कटती राह सच की
निर्देशक सुभाष कपूर फिर उसी ज़ोन में लौटते हैं जहां मज़ाक भी है और सवाल भी. फिल्म किसान आत्महत्या और रोजमर्रा के भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को सामने रखती है, मगर उपदेश से बचती है. पहला हाफ हल्का-फुल्का है—तकरारें, तंज, कोर्टरूम की नोकझोंक—और फिर दूसरे हाफ में टोन भारी होता है. क्लाइमैक्स में भावनाएं उमड़ती हैं, और चुप्पी के छोटे-छोटे पल असर छोड़ते हैं.
स्क्रीनप्ले तेज है. संवाद चुटीले हैं पर खाली पंचलाइन नहीं लगते—वे किरदार और केस की बुनावट से पैदा होते हैं. जहां ज्यादातर कोर्टरूम कॉमेडी आसान रास्ता चुन लेती हैं, यहां बहस और जिरह में सच्चाई की परतों को खोला जाता है. यही बैलेंस फिल्म की जान है. हां, एक इंटेंस गाना खिंचा लगता है और कुछ जगह मेलोड्रामा जबरन घुसता दिखता है, मगर समग्र असर पर इसका वजन कम पड़ता है.
तकनीकी स्तर पर फिल्म सटल रहती है. कैमरा कोर्ट के भीतर चेहरों पर टिका रहता है—जज के सिकुड़ते-फैलते हावभाव, वकीलों की बेचैनी, और गवाहों की हिचक—इन सबको पास से पकड़ा गया है. बैकग्राउंड स्कोर ज्यादातर दबा रहता है, क्लाइमैक्स में ही उभरता है ताकि भावनाएं उधड़ें लेकिन ओवरदोज न लगे. एडिटिंग रफ्तार बनाए रखती है; केस के मोड़ समय पर खुलते हैं, इसलिए दर्शक जुड़ा रहता है.
फ्रैंचाइज़ की पहचान—आम आदमी बनाम सिस्टम—यहां भी कायम है. 2013 की पहली फिल्म ने नेशनल अवॉर्ड तक जीते थे और 2017 की दूसरी कड़ी ने मुख्यधारा में इस टोन को मजबूत किया. तीसरा पार्ट उसी डीएनए को आगे बढ़ाता है: जज की कुर्सी सवाल पूछती है, कोर्ट भले फिल्मी लगे पर मुद्दे असल जिंदगी से उठाए गए हैं.

अभिनय, निर्देशन और दर्शकों की प्रतिक्रिया: जज की कुर्सी पर सौरभ शुक्ला का जलवा
कास्टिंग इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है. अक्षय कुमार की टाइमिंग यहां फिर से क्लिक करती है. उनकी कॉमिक बीट्स कुरकुरी हैं, और जब दूसरा हाफ गंभीर होता है तो वही चेहरा थका, टूटा और बेचैन भी दिखता है—यह शिफ्टिंग विश्वसनीय लगती है. अरशद वारसी पहले हाफ में अपनी नैचुरल कॉमेडी से माहौल सेट करते हैं; क्लाइमैक्स में उनका धीमा-सा टूटना असरदार है. दिलचस्प बात यह है कि फिल्म साफ बताती है—अरशद ‘जॉली नं. 1’ हैं और अक्षय ‘जॉली नं. 2’, पर स्क्रीन टाइम में अक्षय थोड़े आगे नजर आते हैं.
और अब उस शख्स की बात जिसके आते ही कोर्ट खड़ा-सा हो जाता है: सौरभ शुक्ला. जज के रूप में उनकी मौजूदगी फिर मास्टरक्लास है. न तो वॉल्यूम बढ़ाते हैं, न हाथ-पैर फेंकते हैं; उनकी खामोशी, उनकी पलकों का ठहराव, और एक-आध कटाक्ष अदालत की पूरी हवा बदल देता है. कई रिव्यू में यही लिखा गया कि लोग स्टार्स के लिए आएंगे, मगर टिके जज के लिए रहेंगे—और स्क्रीन पर यही होता दिखता है.
सीमा बिस्वास और गजराज राव जैसे कलाकार सपोर्ट में मजबूती देते हैं. इनकी कास्टिंग बताती है कि फिल्म केवल लीड्स पर नहीं टिकती; साइड ट्रैक्स को भी वजन दिया गया है. जहां-जहां इन्हें ठहर कर बोलने का मौका मिलता है, वहां सीन ‘एक्टर-ड्रिवन’ बन जाते हैं.
सुभाष कपूर का निर्देशन इस बार भी स्पष्ट है: मनोरंजन करते हुए सिस्टम पर उंगली उठाना. वे फ्रैंचाइज़ की आवाज़ नहीं खोते. हां, कुछ जगहें हैं जहां भावनाएं थोड़ी ‘फिल्मी’ हो जाती हैं, पर उनकी पकड़ कोर्टरूम के मूल तनाव पर बनी रहती है. केस की बारीकियों से ज्यादा असर इस बात का है कि कैसे एक आम नागरिक सिस्टम की दीवार से टकराता है—और यह भावना दर्शक के साथ बाहर तक जाती है.
सोशल मीडिया का हाल? X (ट्विटर) पर लगातार पोस्ट्स हैं—किसी ने लिखा कि तीसरे पार्ट का डर खत्म, तो किसी ने क्लाइमैक्स की उस ‘चुप्पी’ को प्यूअर सिनेमा कहा. एक लोकप्रिय फिल्म कंटेंट क्रिएटर ने इसे ‘एब्सोल्यूट विनर’ करार दिया. यही नहीं, कई सिनेमा हॉल्स से रिपोर्ट आई कि हर 15–20 मिनट पर सीटियां और तालियां. यह वो रियल-टाइम फीडबैक है जो किसी भी ‘कमर्शियल + कांशस’ फिल्म को चाहिए होता है.
- क्या काम करता है: सौरभ शुक्ला की कमांडिंग जज, अक्षय- अरशद की ट्यूनिंग, चुस्त संवाद, और दूसरे हाफ का इमोशनल-टिल्ट.
- क्या खटकता है: एक इंटेंस गाना लंबा लगता है, कुछ सीन में मेलोड्रामा फोर्स्ड लगता है, और टोन शिफ्ट दो-एक जगह झटका देता है.
बॉक्स ऑफिस की बात करें तो शुरुआती रुझान उत्साहजनक बताए जा रहे हैं. दोनों लीड एक्टर्स के हालिया बॉक्स ऑफिस ग्राफ को देखते हुए यह शुरुआत उन्हें राहत दे सकती है. असली तस्वीर वीकेंड के ट्रेंड से बनेगी, लेकिन ‘वर्ड-ऑफ-माउथ’ मजबूत है—और यही इस तरह की फिल्मों के लिए ऑक्सीजन होता है.
जिन दर्शकों ने पहली दो फिल्मों को पसंद किया था, उनके लिए यह तीसरा पार्ट ‘होम टर्फ’ है—पर यहां टोन थोड़ा और समकालीन है. किसान आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे को एक ‘लॉ-फिल्म’ में समेटना जोखिम भरा था; फायदे में यह रहा कि फिल्म ने साइड नहीं लिया, सवाल उठाए. यही वजह है कि थिएटर से निकलते वक्त लोग केवल जोक्स को याद नहीं कर रहे, बहसों को भी साथ ले जा रहे हैं.
फ्रैंचाइज़ की एक और खूबी बरकरार है—कानून की बारीकी आम भाषा में. यहां लॉ-लिंगो सिर पर नहीं चढ़ती; आम दर्शक केस के मोड़ समझ पाता है, तो कानूनी पेशेवरों को जिरह की टेम्परामेंट में मजा आता है. ऐसे में कोर्टरूम सीक्वेंस केवल ‘सेट-पीस’ नहीं रह जाते, वे कहानी आगे बढ़ाते हैं.
यदि आप मसाला और मैसेज का संतुलन चाहते हैं, यह फिल्म वही पैकेज देती है. परिवार के साथ देखने लायक है क्योंकि अश्लीलता या हिंसा का ओवरडोज नहीं है; विवाद की धार मुद्दों में है, प्रस्तुति में नहीं. और हां, सौरभ शुक्ला का जज जब उंगली उठाकर बस एक वाक्य बोलता है, दर्शक बिन कहे मान जाता है—कोर्ट अजर्न्ड, पर फिल्म याद रह जाएगी.