Jolly LLB 3 Review: कोर्टरूम में ताबड़तोड़ मस्ती और कड़वी सच्चाई, पहले ही दिन दर्शकों ने पास कर दी फिल्म

Jolly LLB 3 Review: कोर्टरूम में ताबड़तोड़ मस्ती और कड़वी सच्चाई, पहले ही दिन दर्शकों ने पास कर दी फिल्म

Jolly LLB 3 Review: कोर्टरूम में ताबड़तोड़ मस्ती और कड़वी सच्चाई, पहले ही दिन दर्शकों ने पास कर दी फिल्म 20 सित॰

तीसरी फिल्मों का डर? इस बार नहीं. Jolly LLB फ्रैंचाइज़ की नई किस्त ने पहले दिन से ही थिएटरों में तालियाँ और सीटियाँ बटोरी हैं. सोशल मीडिया पर रिव्यू की बाढ़ है—लोग कह रहे हैं, तीसरी कड़ी का ‘श्राप’ टूट गया. और वजह साफ है: हंसी-ठट्ठा बना रहा, सिस्टम पर चुभती बातें भी होती रहीं, और कोर्टरूम ड्रामा ने पकड़ छोड़ी नहीं. यही वजह है कि Jolly LLB 3 review फिलहाल हर तरफ पॉजिटिव दिख रहा है.

कहानी, टोन और थीम: ठहाकों के बीच कटती राह सच की

निर्देशक सुभाष कपूर फिर उसी ज़ोन में लौटते हैं जहां मज़ाक भी है और सवाल भी. फिल्म किसान आत्महत्या और रोजमर्रा के भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को सामने रखती है, मगर उपदेश से बचती है. पहला हाफ हल्का-फुल्का है—तकरारें, तंज, कोर्टरूम की नोकझोंक—और फिर दूसरे हाफ में टोन भारी होता है. क्लाइमैक्स में भावनाएं उमड़ती हैं, और चुप्पी के छोटे-छोटे पल असर छोड़ते हैं.

स्क्रीनप्ले तेज है. संवाद चुटीले हैं पर खाली पंचलाइन नहीं लगते—वे किरदार और केस की बुनावट से पैदा होते हैं. जहां ज्यादातर कोर्टरूम कॉमेडी आसान रास्ता चुन लेती हैं, यहां बहस और जिरह में सच्चाई की परतों को खोला जाता है. यही बैलेंस फिल्म की जान है. हां, एक इंटेंस गाना खिंचा लगता है और कुछ जगह मेलोड्रामा जबरन घुसता दिखता है, मगर समग्र असर पर इसका वजन कम पड़ता है.

तकनीकी स्तर पर फिल्म सटल रहती है. कैमरा कोर्ट के भीतर चेहरों पर टिका रहता है—जज के सिकुड़ते-फैलते हावभाव, वकीलों की बेचैनी, और गवाहों की हिचक—इन सबको पास से पकड़ा गया है. बैकग्राउंड स्कोर ज्यादातर दबा रहता है, क्लाइमैक्स में ही उभरता है ताकि भावनाएं उधड़ें लेकिन ओवरदोज न लगे. एडिटिंग रफ्तार बनाए रखती है; केस के मोड़ समय पर खुलते हैं, इसलिए दर्शक जुड़ा रहता है.

फ्रैंचाइज़ की पहचान—आम आदमी बनाम सिस्टम—यहां भी कायम है. 2013 की पहली फिल्म ने नेशनल अवॉर्ड तक जीते थे और 2017 की दूसरी कड़ी ने मुख्यधारा में इस टोन को मजबूत किया. तीसरा पार्ट उसी डीएनए को आगे बढ़ाता है: जज की कुर्सी सवाल पूछती है, कोर्ट भले फिल्मी लगे पर मुद्दे असल जिंदगी से उठाए गए हैं.

अभिनय, निर्देशन और दर्शकों की प्रतिक्रिया: जज की कुर्सी पर सौरभ शुक्ला का जलवा

अभिनय, निर्देशन और दर्शकों की प्रतिक्रिया: जज की कुर्सी पर सौरभ शुक्ला का जलवा

कास्टिंग इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है. अक्षय कुमार की टाइमिंग यहां फिर से क्लिक करती है. उनकी कॉमिक बीट्स कुरकुरी हैं, और जब दूसरा हाफ गंभीर होता है तो वही चेहरा थका, टूटा और बेचैन भी दिखता है—यह शिफ्टिंग विश्वसनीय लगती है. अरशद वारसी पहले हाफ में अपनी नैचुरल कॉमेडी से माहौल सेट करते हैं; क्लाइमैक्स में उनका धीमा-सा टूटना असरदार है. दिलचस्प बात यह है कि फिल्म साफ बताती है—अरशद ‘जॉली नं. 1’ हैं और अक्षय ‘जॉली नं. 2’, पर स्क्रीन टाइम में अक्षय थोड़े आगे नजर आते हैं.

और अब उस शख्स की बात जिसके आते ही कोर्ट खड़ा-सा हो जाता है: सौरभ शुक्ला. जज के रूप में उनकी मौजूदगी फिर मास्टरक्लास है. न तो वॉल्यूम बढ़ाते हैं, न हाथ-पैर फेंकते हैं; उनकी खामोशी, उनकी पलकों का ठहराव, और एक-आध कटाक्ष अदालत की पूरी हवा बदल देता है. कई रिव्यू में यही लिखा गया कि लोग स्टार्स के लिए आएंगे, मगर टिके जज के लिए रहेंगे—और स्क्रीन पर यही होता दिखता है.

सीमा बिस्वास और गजराज राव जैसे कलाकार सपोर्ट में मजबूती देते हैं. इनकी कास्टिंग बताती है कि फिल्म केवल लीड्स पर नहीं टिकती; साइड ट्रैक्स को भी वजन दिया गया है. जहां-जहां इन्हें ठहर कर बोलने का मौका मिलता है, वहां सीन ‘एक्टर-ड्रिवन’ बन जाते हैं.

सुभाष कपूर का निर्देशन इस बार भी स्पष्ट है: मनोरंजन करते हुए सिस्टम पर उंगली उठाना. वे फ्रैंचाइज़ की आवाज़ नहीं खोते. हां, कुछ जगहें हैं जहां भावनाएं थोड़ी ‘फिल्मी’ हो जाती हैं, पर उनकी पकड़ कोर्टरूम के मूल तनाव पर बनी रहती है. केस की बारीकियों से ज्यादा असर इस बात का है कि कैसे एक आम नागरिक सिस्टम की दीवार से टकराता है—और यह भावना दर्शक के साथ बाहर तक जाती है.

सोशल मीडिया का हाल? X (ट्विटर) पर लगातार पोस्ट्स हैं—किसी ने लिखा कि तीसरे पार्ट का डर खत्म, तो किसी ने क्लाइमैक्स की उस ‘चुप्पी’ को प्यूअर सिनेमा कहा. एक लोकप्रिय फिल्म कंटेंट क्रिएटर ने इसे ‘एब्सोल्यूट विनर’ करार दिया. यही नहीं, कई सिनेमा हॉल्स से रिपोर्ट आई कि हर 15–20 मिनट पर सीटियां और तालियां. यह वो रियल-टाइम फीडबैक है जो किसी भी ‘कमर्शियल + कांशस’ फिल्म को चाहिए होता है.

  • क्या काम करता है: सौरभ शुक्ला की कमांडिंग जज, अक्षय- अरशद की ट्यूनिंग, चुस्त संवाद, और दूसरे हाफ का इमोशनल-टिल्ट.
  • क्या खटकता है: एक इंटेंस गाना लंबा लगता है, कुछ सीन में मेलोड्रामा फोर्स्ड लगता है, और टोन शिफ्ट दो-एक जगह झटका देता है.

बॉक्स ऑफिस की बात करें तो शुरुआती रुझान उत्साहजनक बताए जा रहे हैं. दोनों लीड एक्टर्स के हालिया बॉक्स ऑफिस ग्राफ को देखते हुए यह शुरुआत उन्हें राहत दे सकती है. असली तस्वीर वीकेंड के ट्रेंड से बनेगी, लेकिन ‘वर्ड-ऑफ-माउथ’ मजबूत है—और यही इस तरह की फिल्मों के लिए ऑक्सीजन होता है.

जिन दर्शकों ने पहली दो फिल्मों को पसंद किया था, उनके लिए यह तीसरा पार्ट ‘होम टर्फ’ है—पर यहां टोन थोड़ा और समकालीन है. किसान आत्महत्या जैसे संवेदनशील मुद्दे को एक ‘लॉ-फिल्म’ में समेटना जोखिम भरा था; फायदे में यह रहा कि फिल्म ने साइड नहीं लिया, सवाल उठाए. यही वजह है कि थिएटर से निकलते वक्त लोग केवल जोक्स को याद नहीं कर रहे, बहसों को भी साथ ले जा रहे हैं.

फ्रैंचाइज़ की एक और खूबी बरकरार है—कानून की बारीकी आम भाषा में. यहां लॉ-लिंगो सिर पर नहीं चढ़ती; आम दर्शक केस के मोड़ समझ पाता है, तो कानूनी पेशेवरों को जिरह की टेम्परामेंट में मजा आता है. ऐसे में कोर्टरूम सीक्वेंस केवल ‘सेट-पीस’ नहीं रह जाते, वे कहानी आगे बढ़ाते हैं.

यदि आप मसाला और मैसेज का संतुलन चाहते हैं, यह फिल्म वही पैकेज देती है. परिवार के साथ देखने लायक है क्योंकि अश्लीलता या हिंसा का ओवरडोज नहीं है; विवाद की धार मुद्दों में है, प्रस्तुति में नहीं. और हां, सौरभ शुक्ला का जज जब उंगली उठाकर बस एक वाक्य बोलता है, दर्शक बिन कहे मान जाता है—कोर्ट अजर्न्ड, पर फिल्म याद रह जाएगी.



टिप्पणि (20)

  • Seemana Borkotoky
    Seemana Borkotoky

    ये फिल्म देखकर लगा जैसे कोर्ट में बैठकर एक दिन की जिंदगी देख ली। सौरभ शुक्ला की आवाज़ ने तो मुझे रो दिया। बिना किसी गाने के, बिना किसी ड्रामे के, बस एक नज़र से सब कुछ कह दिया।

  • Rahul Tamboli
    Rahul Tamboli

    अरे भाई ये फिल्म तो बस एक बड़ा ब्रांडेड मसाला है जिसमें थोड़ा सा सच छिपा है। जज जो है वो तो बस एक फिल्मी देवता है, असल जज तो घर पर नेटफ्लिक्स देख रहे होते हैं 😂

  • Ratanbir Kalra
    Ratanbir Kalra

    ये फिल्म बताती है कि अदालत नहीं बल्कि आम इंसान का दिल ही सच्चाई का अदालत है जो बिना किसी वकील के फैसला कर देता है और जब तक तुम इस बात को नहीं समझोगे तब तक तुम फिल्म को नहीं देख सकते और अगर तुमने देखा तो तुम्हारा दिल बदल जाएगा और तुम्हारी नज़र बदल जाएगी और तुम अपने आसपास के हर एक इंसान को नए नज़रिए से देखने लगोगे

  • Maj Pedersen
    Maj Pedersen

    ये फिल्म एक ऐसी बात बताती है जिसे हम सब जानते हैं लेकिन कभी बात नहीं करते। किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार, और उन लोगों की चुप्पी जो सच को बोलने से डरते हैं। बहुत अच्छी फिल्म है, बहुत जरूरी फिल्म है।

  • Rakesh Joshi
    Rakesh Joshi

    भाई ये फिल्म देखकर लगा जैसे भारत की असली आत्मा ने एक बार फिर बोल दिया। अक्षय और अरशद का जोड़ा तो बेमिसाल है। जज का किरदार तो बस एक देवता की तरह है। जय हिंद और जय जॉली LLB 3!

  • Rohith Reddy
    Rohith Reddy

    ये सब बकवास है ये फिल्म तो सिर्फ एक बड़ा धोखा है जिसे राष्ट्रीयता के नाम पर बेचा जा रहा है जज को देवता बनाकर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है और जो लोग इसे पसंद कर रहे हैं वो अपनी आँखें बंद करके देख रहे हैं क्योंकि वो सच को देखने से डरते हैं

  • Vaibhav Patle
    Vaibhav Patle

    ये फिल्म तो बस एक बड़ी दर्द भरी खुशी है जो आपको दिल से हंसाती है और फिर आँखें भर देती है। अक्षय के चेहरे पर जो भाव आए थे वो बस असली थे। सौरभ शुक्ला ने तो बस एक नज़र में सब कुछ बता दिया। अब तक की सबसे अच्छी फिल्म 😭❤️

  • Shreyash Kaswa
    Shreyash Kaswa

    फिल्म के बारे में बहुत सारी बातें की जा रही हैं लेकिन क्या कोई इस बात पर चर्चा कर रहा है कि ये फिल्म असली अदालतों की तुलना में बहुत आदर्शवादी है? असल दुनिया में जज नहीं बल्कि बैंकर फैसले करते हैं। ये फिल्म लोगों को एक झूठी उम्मीद दे रही है।

  • HIMANSHU KANDPAL
    HIMANSHU KANDPAL

    मैंने ये फिल्म देखी और रो पड़ा। जब जज ने उंगली उठाई तो मुझे लगा जैसे मेरे पिताजी ने मुझे डांटा है। ये फिल्म नहीं बल्कि एक आत्मा का रोना है। जो लोग इसे पसंद नहीं करते वो दिल से नहीं देखते।

  • Hira Singh
    Hira Singh

    भाई ये फिल्म तो बस एक बड़ा दिल का दौरा है। हर एक सीन में कुछ न कुछ छिपा है। अक्षय ने तो बस अपनी आवाज़ से भी सब कुछ कह दिया। और सौरभ शुक्ला? वो तो एक जीवित अदालत है। बहुत बढ़िया फिल्म है।

  • Sarvasv Arora
    Sarvasv Arora

    फिल्म तो बस एक निर्माता की चालाकी है जिसने लोगों के दिलों में बैठकर भावनाओं को उखाड़ फेंका है। जज का किरदार? बस एक लोकप्रिय ड्रामा। असली अदालत में तो वकील भी नहीं बोल पाता।

  • Arya Darmawan
    Arya Darmawan

    अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी तो आपने भारत के एक अहम पल को नहीं देखा। ये फिल्म सिर्फ एक मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक जागरूकता का टूल है। कोर्टरूम में हर शब्द एक सवाल है। और जज की खामोशी? वो एक जवाब है।

  • Garima Choudhury
    Garima Choudhury

    ये फिल्म तो सबको पसंद आ रही है पर क्या आप जानते हैं कि इसकी पूरी बातचीत एक निर्माता के दिमाग से निकली है जो जानता है कि लोग क्या चाहते हैं। असली जज तो बस अपने घर पर बैठे हैं और बेटी के ब्लूटूथ ऑडियो को चला रहे हैं।

  • Jasdeep Singh
    Jasdeep Singh

    ये फिल्म एक बड़े सिस्टमिक डिस्टोर्शन का उदाहरण है जिसमें जज को एक असली न्याय का प्रतीक बनाकर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है जबकि असली न्याय तो बस एक बायोमेट्रिक डेटा सिस्टम के अंदर फंसा हुआ है जो आम आदमी को भूल गया है। ये फिल्म एक नए तरह का ब्रांडिंग है जिसका उद्देश्य लोगों को बेवकूफ बनाना है।

  • Jayasree Sinha
    Jayasree Sinha

    फिल्म के संवाद बहुत अच्छे हैं, अभिनय शानदार है, और निर्देशन बिल्कुल सटीक। यहाँ कोई अतिशयोक्ति नहीं है, कोई जबरन भावनाएँ नहीं। बस एक साधारण, सच्ची कहानी। जिसे देखकर लोगों को खुद के बारे में सोचना पड़ता है।

  • Puru Aadi
    Puru Aadi

    भाई ये फिल्म तो बस एक बड़ा दिल का दौरा है 😭❤️ जब जज ने उंगली उठाई तो मैं बस रो पड़ा। अक्षय ने तो बस अपनी आँखों से सब कुछ कह दिया। जय जॉली LLB 3 🙌

  • Nripen chandra Singh
    Nripen chandra Singh

    फिल्म अच्छी है पर ये सब बातें तो इतिहास में पहले भी लिखी गई थीं अब फिर से बोलने की क्या जरूरत है जब दुनिया तो बदल गई है और अब लोग जो चाहते हैं वो नहीं है बल्कि वो है जो बेचा जा रहा है

  • Sweety Spicy
    Sweety Spicy

    मुझे लगता है कि ये फिल्म बस एक बड़ा फेक नैशनलिस्टिक ड्रामा है जिसे लोग अपने अहंकार के लिए पसंद कर रहे हैं। जज की खामोशी? बस एक बड़ा बैंडविड्थ वाला ड्रामा। असली अदालत में तो कोई भी नहीं बोलता, सब अपने फोन पर बात कर रहे होते हैं। और अक्षय का अभिनय? बस एक बड़ा ट्रेडमिल।

  • Raghav Khanna
    Raghav Khanna

    फिल्म की निर्माण प्रक्रिया, शूटिंग के तकनीकी पहलू, और अभिनय के सूक्ष्म अंतर बहुत उच्च स्तर के हैं। जज के किरदार का विकास एक निर्माण शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें शाब्दिक और गैर-शाब्दिक संचार का अद्भुत संतुलन बनाया गया है।

  • Vidhinesh Yadav
    Vidhinesh Yadav

    क्या आपने कभी सोचा है कि जब जज उंगली उठाता है तो वह किसके लिए बोल रहा है? क्या वह आम आदमी के लिए है? या फिर वह उस व्यवस्था के लिए है जिसका वह हिस्सा है? ये फिल्म एक सवाल नहीं, बल्कि एक खुला दरवाजा है।

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