रूस के चार युद्धपोतों, जिनमें परमाणु पनडुब्बी कजान और फ्रिगेट एडमिरल गॉर्शकोव शामिल हैं, ने हवाना में दस्तक दी है। यह यात्रा शीत युद्ध की यादें ताजा करती है और यह दर्शाती है कि रूस संयुक्त राज्य अमेरिका के पास भी अपनी क्षमता प्रदर्शित कर सकता है।
शीत युद्ध – क्या था, क्यों महत्त्वपूर्ण है?
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो बड़े पावर ब्लॉक्स उभरे: अमेरिका और सोवियत संघ. इनके बीच हुई तनाव भरी टक्कर को हम शीत युद्ध कहते हैं. यह सिर्फ राजनीतिक झड़प नहीं, बल्कि आर्थिक, सैन्य और सांस्कृतिक स्तर पर भी असर डालता था. भारत जैसे विकासशील देश इस माहौल में कैसे फिट हुए, यही सवाल अक्सर उठता है.
भारत की रणनीति: तटस्थता से संतुलन तक
शीत युद्ध के शुरुआती सालों में पंडित नेहरू ने ‘गैर-समुहित’ नीति अपनाई. इसका मतलब था दोनों महाशक्तियों के साथ दोस्ती बनाए रखना, लेकिन किसी एक पक्ष का समर्थन न करना. इस नीति से भारत को आर्थिक मदद और तकनीकी सहयोग मिला, पर कभी‑कभी दोनो देशों से दबाव भी महसूस हुआ.
1950 के दशक में जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया, तब भारत ने अपनी सुरक्षा चिंताओं को लेकर अमेरिका से मिलकर रक्षा समझौता किया. यही पहला कदम था जिससे भारत की ‘गैर‑समुहित’ नीति में थोड़ा बदलाव आया. 1971 का युद्ध और बांग्लादेश बनना भी शीत युद्ध के प्रभाव को दिखाता है – जब सोवियत ने भारतीय सेना को समर्थन दिया, जबकि अमेरिका पाकिस्तानी पक्ष पर रहा.
शीत युद्ध की प्रमुख घटनाएँ जो भारत को सीधे छू गईं
1. **कोरियाई युद्ध (1950‑53)** – इस संघर्ष में भारत ने संयुक्त राष्ट्र के तहत सैनिक भेजे, जिससे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी भूमिका बढ़ी.
2. **क्यूबन मिसाइल संकट (1962)** – अमेरिका और USSR की टकराव ने वैश्विक तनाव को चरम पर पहुंचा. भारत ने शांतिपूर्ण समाधान की वकालत की, लेकिन सुरक्षा चिंता बनी रही.
3. **वियतनाम युद्ध (1955‑75)** – यहाँ भी भारत ने शरणार्थियों को स्वागत किया और अपने नैतिक stance को दर्शाया.
4. **अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण (1979‑89)** – इस दौरान अमेरिका ने अफ़गानी मोजाहिदीन को मदद दी, जबकि भारत ने न तो पक्ष लिया न ही विरोध किया; बल्कि शरणार्थियों की देखभाल पर ध्यान दिया.
5. **अंतिम सालों में बर्लिन का गिरना (1989)** – सोवियत संघ के ढहने से वैश्विक शक्ति संतुलन बदल गया और भारत ने नई आर्थिक नीतियां अपनाई, जिससे आज के लिबरलाइजेशन की राह बनी.
इन सब घटनाओं ने भारतीय राजनीति, विदेश नीति और समाज पर गहरा असर डाला. चाहे वह रक्षा खर्च में बढ़ोतरी हो या विदेशी निवेश का प्रवाह, शीत युद्ध ने भारत को एक नया दिशा‑निर्देश दिया.
शीत युद्ध के बाद की दुनिया – क्या बदला?
1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद द्विध्रुवीयता समाप्त हुई. अब बहुध्रुवीय शक्ति संरचना सामने आई, जहाँ चीन और यूरोपीय संघ भी महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन गए. भारत ने इस बदलाव को लेकर आर्थिक उदारीकरण की बेताब कोशिशें शुरू कीं, जिससे आज वह वैश्विक मंच पर एक प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जाता है.
शीत युद्ध का मुख्य संदेश यही था कि बड़े‑बड़े देशों के बीच तनाव छोटे राष्ट्रों को भी प्रभावित कर सकता है. भारत ने इस सीख को अपनाते हुए संतुलन बनाए रखने, रणनीतिक साझेदारी बनाने और अपने राष्ट्रीय हितों पर ध्यान केंद्रित करने की राह चुनी.
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