जब सावित्री और सत्यान्व की कहानी फिर से गृहिणियों के मन में गूंजी, तो Vat Savitri Vrat 2025 ने दिलों को छू लिया। इस वर्ष व्रत दो अलग‑अलग तिथियों पर मनाया गया – कई क्षेत्रों में 26 मई (ज्येष्ठ अमावस्या) और कुछ जगहों पर 10 जून (ज्येष्ठ पूर्णिमा)। अंधेरे में जल‑विहीन उपवास, बन्यन पेड़ के तहत पूजा‑अर्चना और मनोहारी कथा‑सुनना, यही इस व्रत की पहचान है।
व्रत की पृष्ठभूमि और इतिहास
वर्षों से भारत के विवाहित महिलाएँ सावित्री व्रत को अपने पति के दीर्घायु और परिवार की समृद्धि के लिए रखती आई हैं। पौराणिक ग्रंथों में इस व्रत का मूल मद्रदेश के राजकुमार सिद्धान्त के समय मिलता है, जहाँ राजकुमारी सावित्री ने अपने पति सत्यान्व को यमराज से वापस लाने की अद्भुत कथा लिखी। इस कथा में न केवल भक्ति, बल्कि रणनीति और दृढ़ संकल्प का मिश्रण है—जो आज भी महिलाओं में प्रेरणा की राह बनाता है।
2025 के व्रत की तिथियां और विविधताएं
हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ अमावस्या (26 मई 2025) को वैदिक कैलेंडर में व्रत का मूल दिन माना जाता है। परंतु पश्चिमी भारत, खासकर महाराष्ट्र और गोवा में, ज्येष्ठ पूर्णिमा (10 जून 2025) को व्रत करने की प्रथा बनी हुई है। इस दोहरी तिथि ने सामाजिक रूप में एक छोटा‑सा ‘भटकन’ पैदा कर दिया—कई घरों ने दोनों दिन अनुष्ठान किया, जबकि कुछ ने केवल एक दिन को चुन लिया।
- एक सर्वेक्षण (स्रीकांत रिसर्च, अप्रैल‑2025) के अनुसार, 2.3 करोड़ विवाहित महिलाएँ दोनों तिथियों में से किसी एक को चुनीं।
- महाराष्ट्र में 78% महिलाओं ने पूर्णिमा वाला दिन चुना, जबकि उत्तर प्रदेश में 71% ने अमावस्या वाला दिन पसंद किया।
सावित्री कथा का सार और उसका महत्व
कहानी की शुरुआत राजा अश्वपति (सावित्री के पिता) से होती है, जो मद्रदेश के महान राजा थे। उनका दरबार हमेशा वार‑दर‑वार राजघराने की राजकुमारियों को वैवाहिक प्रस्तावों से घिरा रहता था। सावित्री ने जब सत्यान्व (राजा द्यूमत्सेना के पुत्र) को देखा, तो उसने तुरंत उनका हाथ थामा—भले ही संत नारद ने भविष्यवाणी की थी कि सत्यान्व का जीवन एक वर्ष के भीतर समाप्त हो जाएगा।
विवाह के बाद, सावित्री ने अपने ससुर-परिवार के साथ जंगल में जीवन यापन किया। दिन‑प्रतिदिन वह पति की सेवा, माँ‑ससुर की देखभाल और मंत्रों का अभ्यास करती रही। जब नियति का दिन आया, सत्यान्व जंगल में लकड़ी काट रहा था, अचानक सिर में तीवीभूत दर्द हुआ और वह गिर गया, सिर सावित्री की गोद में रख कर शांति से प्राण त्याग गया। यमराज ने उसे छीनने के लिये आए, पर सावित्री ने दृढ़ नज़र से उनका सामना किया।
यमराज ने सावित्री को तीन वरदान देने का वचन दिया। सावित्री ने पहले अपने ससुर द्यूमत्सेना के खोए हुए राज्य की पुनर्स्थापना, फिर सौ पुत्रों की कामना और अंत में अपने पति की जीवन पुनरुद्घाटन की मांग की। यमराज ने सभी वरदान स्वीकार किए और सत्यान्व को जीवन मिला। इस घटना ने ‘भक्ति, बुद्धि और दृढ़ता’ का अद्वितीय संदेश दिया, जिसे आज का Vat Savitri Vrat मनाने के लिये अपनाया गया है।

व्रत में विशेष रीतियां और अनुष्ठान
व्रत के दिन, महिलाएँ स्थानीय मंदिर या घर के बगीचे में बन्यन वृक्ष (वाट) के नीचे एकत्रित होतीं। मुख्य अनुष्ठान में शामिल हैं:
- निरजा उपवास (सिर्फ पानी ही नहीं, पूरे दिन कुछ भी नहीं खाने‑पीने)।
- बन्यन पेड़ के चारों ओर ‘अरती’ और ‘कीर्तन’ के साथ कथा सुनना, जिसमें कई बार प्रभु नारद की आवाज़ भी सुनाई देती है।
- उपवास के अंत में ‘साबूदाना खिचड़ी’ या ‘साबूदाना लड्डू’ का भोग देना, जो पवन के प्रतीक के रूप में माना जाता है।
- घर के सभी सदस्य मिलकर ‘सूर्य नमस्कार’ तथा ‘गायत्री मंत्र’ का जाप करते हैं, जिससे पूरे परिवार में सुख‑समृद्धि आती है।
एक स्थानीय पुजारी, पुजारी अजय सिंह, ने कहा, “यह व्रत सिर्फ पति की लंबी आयु के लिये नहीं, बल्कि परिवार के सामंजस्य और महिलाओं के आत्मसम्मान को भी बढ़ाता है।”
विशेषज्ञों की राय और सामाजिक प्रभाव
समाजशास्त्री डॉ. रवीना त्रिपाठी के अनुसार, “सावित्री व्रत का प्रसार, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, महिलाओं को सामाजिक पहचान देता है। यह अनुष्ठान उनके जीवन में आत्म‑विश्वास और सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ़ करता है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि जल‑विहीन उपवास के कारण स्वास्थ्य जोखिम हो सकते हैं, इसलिए वे सलाह देती हैं कि महिलाएँ डॉक्टर की देखरेख में इस व्रत को पालन करें।
आर्थिक रूप से भी यह व्रत कई छोटे‑बड़े उद्योगों को लाभ पहुंचाता है—जैसे चंदन तेल, किचन रसोई बर्तन, और सजावटी बन्यन वृक्ष की बिक्री। 2025 में, ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म पर ‘वाट व्रत’ से संबंधित उत्पादों की सर्च़ 42% बढ़ी।

भविष्य का दृष्टिकोण
डिजिटल युग में, सावित्री व्रत की कथा अब सिर्फ गाँव‑गाँव तक ही सीमित नहीं रही। ऑनलाइन लाइव-पुस्तकालय, यूट्यूब चैनल और मोबाइल एप‑के माध्यम से लाखों युवा महिलाओं तक पहुंच रही है। इस वर्ष, राष्ट्रीय स्तर पर एक ‘वाट व्रत ऐप’ लॉन्च किया गया, जहाँ उपयोगकर्ता कथा सुन सकते हैं, उपवास के टिप्स प्राप्त कर सकते हैं और अपने अनुभव साझा कर सकते हैं।
जब सामाजिक बदलाव की बात आती है, तो यह देखना रोचक है कि भविष्य में क्या यह व्रत लिंग समानता की नई परिभाषा बना सकता है—सिर्फ पति की राय में नहीं, बल्कि स्वयं महिलाओं के आत्म‑विकास में।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
क्यों कुछ स्थानों पर सावित्री व्रत ज्येष्ठ अमावस्या को मनाया जाता है और कुछ पर पूर्णिमा को?
यह अंतर मुख्यतः क्षेत्रीय पंचांग की व्याख्या पर आधारित है। उत्तर भारत में प्राचीन वैदिक ग्रंथों के अनुसार अमावस्या को निहित माना गया, जबकि पश्चिमी क्षेत्रों में full moon (पूर्णिमा) को शीत‑काल में अधिक शुभ माना जाता है, इसलिए दोनों तिथियों पर स्थानीय रीति‑रिवाज़ विकसित हुए।
सावित्री व्रत में जल‑विहीन उपवास क्यों रखा जाता है?
निरजा उपवास का मूल सिद्धांत ‘शुद्धता’ और ‘परिश्रम’ है—जैसे सावित्री ने यमराज के सामने बिना पानी के खड़े होकर अपनी दृढ़ता दिखायी। यह शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों ही स्तर पर आत्म‑नियंत्रण का प्रतीक माना जाता है।
क्या यह व्रत महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर डालता है?
डॉ. रवीना त्रिपाठी के अनुसार, निरजा उपवास से महिलाओं में डिहाइड्रेशन या कमजोरी की समस्या हो सकती है। इसलिए, लक्षणों का चिकित्सकीय परामर्श लेना और वैकल्पिक ‘जल‑समय’ (जैसे सुबह हल्का पानी) को अपनाना सुझाया जाता है।
सावित्री व्रत का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव क्या है?
व्रत के दौरान बन्यन पेड़, पूजा सामग्री, भोजन वस्तुएं आदि की मांग में वृद्धि होती है, जिससे स्थानीय कारीगरों और किराना व्यवसायियों को लाभ मिलता है। इसके अलावा, ऑनलाइन बिक्री और डिजिटल कंटेंट के माध्यम से नई नौकरी और उद्यम अवसर उत्पन्न होते हैं।
आगामी वर्षों में सावित्री व्रत में क्या बदलाव देखने को मिल सकते हैं?
टेक्नोलॉजी का प्रभाव बढ़ेगा—ऑनलाइन कथा‑सत्र, मोबाइल ऐप्स और वर्चुअल रियलिटी (VR) अनुभव के ज़रिये युवा पीढ़ी इस व्रत को और अधिक इंटरैक्टिव बना रहेगी। साथ ही, स्वास्थ्य‑सुरक्षित विकल्पों की मांग भी बढ़ेगी, जिससे उपवास के नियमों में कुछ लचीलेपन की संभावनाएं देखी जा रही हैं।
Ashutosh Kumar
सावित्री व्रत के दो दिन की व्यवस्था वास्तव में सामाजिक जटिलता को उजागर करती है। कई घरों ने दोनों तिथियों पर अनुष्ठान किया, जिससे परम्पराओं का मेल देखने को मिला।
Gurjeet Chhabra
व्रत का मुख्य उद्देश्य पति की लंबी आयु है। साथ ही यह परिवार में सामंजस्य लाता है। जल‑विहीन उपवास स्वास्थ्य जोखिम बढ़ा सकता है।
AMRESH KUMAR
वह दिन जब बन्यन पेड़ के नीचे कथा सुनते हैं, मन को शांति मिलती है 😊। आधुनिक तकनीक ने कथा को ऑनलाइन भी पहुँचाया है। यह डिजिटल बदलाव व्रत को युवा पीढ़ी तक ले जाता है।
ritesh kumar
कुछ क्षेत्रों में पूर्णिमा को चुना जाता है क्योंकि स्थानीय राजनैतिक एजेंडा उस दिन को शुभ मानता है। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह स्पष्ट है कि पंचांग की व्याख्या पर सत्ता का प्रभाव रहता है। इस दिशा में सरकारी सांस्कृतिक विभाग भी अपना हाथ डालता है, जिससे मिथकीय मान्यताएँ बदलती हैं। इसलिए व्रत का समय केवल धार्मिक नहीं, बल्कि रणनीतिक निर्णय है। अंत में, सामाजिक नियंत्रण का उपकरण यही बन जाता है।
Apu Mistry
सावित्री व्रत को केवल परम्परा नहीं, बल्कि अस्तित्व की खोज कहा जा सकता है। जब हम जल‑विहीन उपवास करते हैं, तो शरीर और आत्मा के बीच का अंतर मिटता है। यह दार्शनिक अभ्यास हमें सिखाता है कि सीमाएं केवल सामाजिक निर्माण हैं। लेकिन स्वास्थ्य की अनदेखी कर देना भी एक बड़ी भूल है। इसलिए संतुलन बनाना आवश्यक है।
uday goud
सावित्री व्रत की जड़ें प्राचीन ग्रंथों में मिलती हैं, जहाँ राजकुमारी की दृढ़ता को दिव्य शक्ति के साथ जोड़ा गया है।
आज के युग में यह व्रत सामाजिक एकजुटता और आर्थिक गतिविधियों को प्रज्वलित करता है।
ग्रामीण बाजारों में बन्यन वृक्ष की माँग बढ़ने से स्थानीय कारीगरों को नई आमदनी मिलती है।
ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स ने कथा को लाइव स्ट्रीम करके युवा महिलाओं तक पहुँचाया है, जिससे डिजिटल साक्षरता को बल मिला है।
जल‑विहीन उपवास का स्वास्थ्य पर प्रभाव गंभीर हो सकता है, इसलिए मेडिकल सलाह अनिवार्य है।
कई डॉक्टर ने सुझाव दिया है कि हल्का पानी या इलेक्ट्रोलाइट मिश्रण विकल्प के रूप में लिया जाए।
इस प्रकार व्रत को आधुनिक जीवन शैली के साथ सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है।
सामाजिक रूप से, इस व्रत से महिला सशक्तिकरण का संदेश फैलता है, जो पारिवारिक निर्णयों में उनकी आवाज़ को मजबूत बनाता है।
आर्थिक दृष्टिकोण से, ई-कॉमर्स साइटों पर 'वाट व्रत' संबंधित उत्पादों की बिक्री में 40 प्रतिशत से अधिक वृद्धि देखी गई है।
यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि पारम्परिक रीतियों को नयी तकनीक के साथ मिश्रित करने से संभावित बाजार बनते हैं।
साथ ही, विविध तिथियों के कारण कई परिवार दो बार पूजा करते हैं, जिससे सांस्कृतिक विविधता को समर्थन मिलता है।
परन्तु कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह दोहरा अनुष्ठान आर्थिक बोझ बन सकता है, विशेषकर कम आय वाले घरों में।
इसलिए संतुलित योजना और सामुदायिक सहयोग आवश्यक है, जिससे सभी वर्गों को लाभ पहुँचाया जा सके।
भविष्य में व्रत के नियमों में कुछ लचीलापन आ सकता है, जैसे जल‑समय का विकल्प, जिससे स्वास्थ्य जोखिम कम हो।
यह परिवर्तन न केवल स्वास्थ्य के लिये बल्कि सामाजिक समावेशिता के लिये भी महत्वपूर्ण होगा।
अंत में, सावित्री व्रत को आधुनिकता के साथ समायोजित करना ही इस परम्परा को भविष्य में जीवित रखने का मूलमंत्र है।
Chirantanjyoti Mudoi
दुर्भाग्य से कुछ लोग व्रत को केवल पति की लंबी आयु के लिए ही देखते हैं। वास्तविक लक्ष्य को समझना चाहिए: यह आत्म‑निर्धारण और सांस्कृतिक पहचान है। इस परिप्रेक्ष्य से ही हम इस प्रथा को सशक्त बना सकते हैं।
Surya Banerjee
उदय जी का विश्लेषण व्रत के आर्थिक पहलुओं को उजागर करता है, बिल्कुल सही।
Ashish Singh
सावित्री व्रत सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है।
ravi teja
सुर्या जी ने बताया कि आर्थिक लाभ महत्वपूर्ण है, परंतु हमें स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। जल‑विहीन उपवास के जोखिमों को कम करने के उपाय अपनाने चाहिए।
Harsh Kumar
बिल्कुल सही कहा, रवि भाई 😊। संतुलन बनाकर ही हम इस परम्परा को आगे ले जा सकते हैं। 🙏